1.जूठन पाठ का सारांश लिखें
ओमप्रकाश वाल्मीकि जब बालक थे तो उनके स्कूल में हेडमास्टर कालीराम उनसे पढ़ने के बदले झाडू लगवाते हैं। नाम भी इस तरह से हेड मास्टर पूछता था कि कोई बाघ गरज रहा हो। दो दिन तक झाडू लगवाने के बाद तीसरे दिन उसके पिता देख लेते हैं । लड़का फफक कर रो उठता है और पिता से सारी बात बताते हैं । पिताजी मास्टर पर गुस्साते हैं । ओमप्रकाश वाल्मीकि बताते हैं कि उनकी माँ मेहनत – मजदूरी साथ आठ-दस तगाओं के घर में साफ-सफाई करती थी और माँ के इस काम में उनकी बड़ी बहन, बड़ी भाभी तथा जसवीर और जेनेसर दोनों भाई माँ का हाथ बॅटाते थे । बड़ा भाई सुखवीर तगाओं के यहाँ वार्षिक नौकर की तरह काम करता था। इन सब कामों के बदले मिलता था दो जानवर . पीछे फसल तैयार होने के समय पाँच सेर अनाज और दोपहर के समय एक बची – खुची रोटी जो रोटी खासतौर पर चूहड़ों को देने के लिए आटे – भूसी मिलाकर बनाई जाती थी । कभी – कभी जूठन भी भंगन की कटोरे में डाल दी जाती थी। दिन – रात मर खप कर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं , कोई शर्मिंदगी नहीं , पश्चाताप नहीं यह कितना क्रूर समाज है जिसमें श्रम का मोल नहीं बल्कि निर्धनता को बरकरार रखने का एक षड्यंत्र ही था सब । ओमप्रकाश के घर की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि एक एक पैसे के लिए प्रत्येक परिवार के सदस्य को खटना पड़ता था । यहाँ तक कि लेखक को भी मरे हुए पशुओं के खाल उतारने जाना पड़ता था । यह समाज की वर्ण – व्यवस्था एवं मनुष्य के द्वारा मनुष्य का किया गया शोषण का ही परिणाम है कि एक ओर व्यक्ति के पास धन की कोई कमी नहीं तो दूसरी और हजारों – हजार को दो जून की रोटी के लिए निकृष्ट कार्य करने पड़ते हैं । भोजन की कमी और मन की लालसा को पूरी करने के लिए जूठन भी चाटनी पड़ती है । लेखक को एक बात का बहुत गहरा असर होता है उसकी भाभी दवारा कहा गया कथन कि इनसे ये न कराओ रह लेंगे इन्हें इस गंदगी में न घसीटो । ये शब्द लेखक को उस गंदगी से बाहर निकाल लाते भूखे भाभी के कहे ये शब्द आज भी लेखक के हृदय में रोशनी बन कर चमकते हैं। क्योंकि उस दिन लेखक, उनकी भाभी और माँ के साथ सम्पूर्ण परिवार पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि लेखक है ओमप्रकाश वाल्मीकि धीरे – धीरे किन्तु दृढ़ संकल्प से पढ़ाई में ध्यान लगाता है और हिन्दी में स्नातकोत्तर करने के पश्चात् अनेक सम्मान जैसे डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार , परिवेश सम्मान , जयश्री सम्मान , कथाक्रम सम्मान से विभूषित होकर सरकार के आर्डिनेंस फैक्ट्री में अधिकारी पद को भी विभूषित किया। इसके साथ ही , इन्होंने आत्मकथा , कहानी संग्रह कविता संग्रह , आलोचना आदि पर अनेक रचनाएँ भी लिखीं। महाराष्ट्र में मेघदूत नामक नाट्य संस्था स्थापित कर उसके माध्यम से इन्होंने अनेक अभिनय और मंचन का निर्देशन भी किया । इस प्रकार लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने एक चूहड़ ( दलित ) के घर में जन्म लेकर जीवन में सफलता के उच्च सोपान तक पहुँच कर यह सिद्ध कर दिया कि जहाँ चाह है , वहाँ सह ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस आत्मकथा ने अनेकानेक पाठकों पर भारी असर डाला है क्योंकि इनके लेखन में इनके अपने जीवनानुभवों की सच्चाई और वास्तव बोध से उपजी नवीन रचना संस्कृति की अभिव्यक्ति का एहसास होता । दलित जीवन के रोष और आक्रोश को वे अपने संवेदनात्मक रचनानुभवों की भट्ठी में गला कर एक नये अनुभवजन्य स्वरूप में रखते हैं जो मानवीय जीवन में परिवर्तन करने की क्षमता रखता है। गाढ़ी संवेदना और मर्मस्पर्शिता के कारण उपर्युक्त आत्मकथा पढ़ने पर मन पर गहरा प्रभावकारी असर होता है।
2. बचपन में लेखक के साथ जो कुछ हुआ , आप कल्पना करें कि आपके साथ भी हुआ हो ऐसी स्थिति में आप अपने अनुभव और प्रतिक्रिया को अपनी भाषा में लिखिए।
उत्तर- लेखक के साथ अनेक घटनाएँ घटती हैं जिनके मूल में है उसकी जाति और हमारे समाज की जाति व्यवस्था । स्कूल की घटना तो काफी अपमानजनक है , साथ ही वह यह भी ध्वनित कर देती है कि नीची जाति के गरीब बालक के साथ कितना भी अपमानजनक अमानवीय व्यवहार किया जा सकता है। मात्र इस कारण कि वह नीची जाति का है। उसका दोष क्या है मात्र इतना कि वह एक नीची जाति का है। क्या हेडमास्टर यही व्यवहार किसी ठाकुर लड़के के साथ कर सकता था यहाँ कलीराम की कायरता भी स्पष्ट है । यह स्थिति बालक के मन में पनप रहे ज्ञानांकुर की ओर , शिक्षा पाने की लालसा कुंठित कर देती है और हर क्षण उसके ऊपर क्रूर अत्याचारी शिक्षक का आतंक छाया रहता है और वह भीरु बन जाता है। साथ ही यह व्यवहार बालक के मन में एक आक्रोशयुक्त उबाल भी जगा देता है। उसका जीवन जाति के दायरे में ही चलता है जूठन पर पलता है , क्या आप वह जूठन खा सकते हैं समाज कितना क्रूर है , भरी बारात खाना खा रही है पर दो बच्चों को चौधरी सुखदेवसिंह एक पत्तल पर दो पूड़ी
3.किन बातों को सोचकर लेखक के भीतर काँटे से उगने लगते हैं
उत्तर- उसके साथ जो भी हुआ , उसको जो भी अपमान सहना पड़ा , जो भी काम करना पड़ा और समाज का क्रूर भयानक चेहरा देखना पड़ा , यह सब याद आते ही उसके भीतर काँटे से चुभने लगते हैं । उसके परिवार के सदस्य सफाई का काम करते थे । दस बारह पशुओं का गोबर – कूड़ा साफ करना , जाड़े – बरसात में भारी असुविधा महसूस करना किन्तु पारिश्रमिक मात्र पाँच सेर अनाज दो जानवरों के पीछे मिलता था फसल पर । दोपहर को भूसी मिलाकर बनायी गयी रोटी या जूठन मिलती थी। शादी ब्याह के समय जूठी पत्तलों से उनका निवाला चलता था । पूड़ी के बचे – खुचे टुकड़े , एकाध मिठाई का टुकड़ा , जरा सी बची सब्जी पत्तल पर पाकर उनकी आँखें खिल जाया करती थीं । पूड़ियाँ सुखाकर रख ली जाती थीं , वर्षा काल में उन्हें उबालकर नमक तथा बारीक मिर्च के साथ बड़े चाव से खाते थे। कभी – कभी गुड़ डालकर उसकी लुग्दी जैसी बनायी जाती थी जो अमृतपान से कम प्यारा नहीं था । यही था लेखक का घोर अपमान , तिरस्कार , प्रताणना का जीवन जहाँ जूठन ही अमृत तुल्य थी । जिसे बड़े लोग फेंक देते थे, उसको वे बटोर लेते थे। क्या था परमात्मा का यह क्रूर न्याय
4 सुरेन्द्र की बातों को सुनकर लेखक विचलित क्यों हो जाता है
उत्तर- सुरेन्द्र ने कहा था भाभी जी आपके हाथ का खाना तो बहुत जायकेदार है । हमारे घर में तो कोई भी ऐसा खाना नहीं बना सकता है । यह कथन लेखक को
विचलित कर देता है । कारण सुरेन्द्र के दादा और पिता की जूठन पर ही लेखक का बचपन बीता था और उस जूठन की भी कीमत थी । पूरे दिन की हाड़ तोड़ मेहनत साथ में थी भन्ना देने वाली दुर्गन्ध , साथ में गालियाँ , धिक्कार । सुरेन्द्र की बड़ी बुआ की शादी थी । सारे परिवार ने कठोर श्रम किया था । जब बारात खा चुकी तो लेखक की माँ ने कहा था- चौधरी जी, इब तो सब खाणा खाके चले गए म्हारे जाकतों कू भी एक पत्तल पर धर क कुछ दे दो ! वो बी तो इस दिन का इन्तजार कर रे ते । चौधरी ने पत्तल तो नहीं दी , साथ ही उन्होंने जूठी पत्तलों से भरे टोकरी की तरफ इशारा करके कहा – टोकरा भरके तो जूठन ले जा रही है .. ऊपर से जाकतों के लिए खाणा मांग री है अपणी औकात में रह चूहड़ी । उठा टोकरा दरवाजे से और चलती बन क्या यह सब भूला जा सकता था यह घटना इस समय उसकी आँखों के सामने साकार हो उठी। यही कारण था कि लेखक सहसा विचलित हो उठा।
5. लेखक की भाभी क्या कहती हैं उनके कथन का महत्व बताइए ।
उत्तर- गाँव में ब्रह्मदेव तगा का बैल खेत से लौटते समय मर गया । मरे पशु की खाल उतारकर उसको बेचकर कुछ रुपये मिल जाते थे । आज लेखक के पिताजी और बड़े भाई घर पर नहीं थे । अगर देर हो गयी तो गिद्ध उसकी खाल खराब कर देंगे । अत चाचा के साथ लेखक को भेजा गया । खाल उतारकर एक चादर में बांध दी गयी थोड़ी दूर तो चाचा ने वह गठरी ढोयी, फिर छोड़ दी और लाख मिन्नतों के बाद भी उनका दिल नहीं पसीजा । मजबूरी में लेखक उसको लादकर चला । जब वह घर पहुँचा उसकी हालत बड़ी खराब हो चुकी थी । उसकी दुर्दशा देखकर लेखक की माँ तो रो पड़ी थी और उसकी भाभी ने कहा था- इनसे यह न कराओ भूखे रह लेंगे उन्हें इस गन्दगी में न घसीटो । लेखक पढ़ रहा था उस समय कक्षा 9 में आ गया था , साथ ही वह घर भर का लाइला था । परिवार को यह आभास हो रहा था कि शायद यह पढ़कर कुछ बन सकेगा । अतः यह कोई नहीं चाहता था कि वह अपने पैतृक व्यवसाय में पड़े और सड़ता रहे । कुछ त्याग करके ही कुछ मिलता है और मिला भी । काश भाभी की सोच ऐसी न होती तो लेखक के हाथ में लेखनी न होकर छुरी होती ।