हमारे WhatsApp Group में जुड़ें👉 Join Now

हमारे Telegram Group में जुड़ें👉 Join Now

12th Hindi Subjective Question Part-9| प्रगीत और समाज का पाठ का सारांश लिखें | vvi hindi subjective question

1.प्रगीत और समाज का पाठ का सारांश लिखें

प्रगीत और समाज एक आलोचनात्मक निबन्ध है जो निबंधों की पुस्तक वाद-विवाद संवाद से लिया गया है। हिन्दी साहित्य में हजारों वर्षों से काव्य सरिता प्रवाहित है। उसके रूप बदलते रहे हैं और प्रगीत नामधारी एक धार भी उसी गीतिकाव्य की निरन्तरता का ही प्रतिफल है । यहाँ उसी प्रगीत की परख की गयी है साथ ही उसको आज की सामयिक आवश्यकता के रूप में भी परखा गया है 1 प्रगीत की सामाजिक साहित्यिकता क्या है, कैसी है, साथ ही हमारी साहित्यिक परम्परा में उसकी अहमियत क्या है – उसकी भी पड़ताल की गयी है । प्रगीतात्मकता का दूसरा उन्मेष बीसवीं सदी में मांटिक उत्थान के साथ हुआ जिसका सम्बन्ध भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष से भी रहा है । यह प्रगीतात्मकता शक्ति काव्य है।

2. प्रगीत को आप किस रूप में परिभाषित करेंगे इसके बारे में क्या धारणा प्रचलित रही है
उत्तर- पाश्चात्य साहित्य की लिरिक पोइट्री के लिए हिन्दी में गीतिकाव्य शब्द का प्रयोग हुआ , पर बाद में उसके लिये गीतिकाव्य , प्रगीतकाव्य अथवा प्रगीति मुक्तक शब्द भी प्रचलन में आ गया । प्रबन्ध और मुक्तक में जो अन्तर है , वही प्रगीत का भी रूप देखा जा सकता है । प्रबन्ध काव्य में यथार्थ , आदर्श इतिहास अथवा कल्पना का समावेश होता है , एक पूर्णता रहती है , पात्रों का अपना अपना व्यक्तित्व होता है, पर प्रगीत में निर्बाध – प्रत्यक्ष व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है यहाँ पर प्रत्यक्ष संकोच , कुण्ठारहित निजी व्यक्तित्व तथा उच्छवासित भाव तरंगों को ही वाणी प्रदान की जाती है अत यहाँ सहज तरलता , अबाध मुक्तता और प्रत्यक्षानुभूति की ध्वनि दिखायी पड़ती है । वैयक्तिकता तो गीतिकाव्य का आधार ही है । गीतिकाव्य वही काव्य है जहाँ कवि की वैयक्तिक भावनाएँ , अनुभूतियाँ उसके अनुरूप लयात्मक अभिव्यक्ति पा जाती हैं उसको क्षण की वाणी भी कहा जाता है जो क्षणपूर्ण और समग्र होते हैं और वे क्षण ही समग्र जीवन भी प्रतीत होते हैं । जूही की कली उसी श्रेणी की रचना है जो पूरी तरह आत्मपरक है । यह भी माना जा सकता है कि प्रगीत काव्य वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकता का रूप लेकर ही उभरता है। यह भी कहा जाता है प्रगीत काव्य में वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकता के रूप में ही व्यक्त होता है , पर इसके
3. वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं से क्या तात्पर्य है आत्मपरक प्रतीक और नाट्यधर्मी कविताओं की यथार्थ – व्यंजना में क्या अन्तर है
उत्तर- वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं के जीवन में समस्त चित्र उभर आते हैं । यद्यपि मुक्तिबोध की लम्बी कविताएँ वस्तुपरक ही मानी जा सकती हैं पर वे भी उनके
आत्मसंघर्ष से दूर नहीं हैं । ये कविताएँ अपने रचना कौशल से प्रगीत ही हैं , यह बात अलग है कि किसी में तो नाटकीय रूप के बावजूद काव्य भूमि प्रगीतात्मक ही है , कहीं नाटकीय एकालाप भी दिख जाता है , तो कहीं पूर्णत शुद्ध प्रगीत भी झलकता है । उनको सहर्ष स्वीकारा है तथा मैं तुम लोगों से दूर हूँ मुक्तिबोध ने इनके बारे में स्वयं भी कहा है – उनमें कथा केवल आभास है , नाटकीयता केवल मरीचिका है वह विशुद्ध आत्मपरक काव्य है । जहाँ नाटक नाटकीयता है वहाँ भी कविता के भीतर की सारी नाटकीयता वस्तुत भावों की है , जहाँ नाटकीयता है वहाँ वस्तुतः भावों की गतिमयता है कारण वहाँ जीवन यथार्थ मात्र भाव रूप में ही सामने आया है अथवा बिम्ब या विचार बनकर अत यह माना जा सकता है कि आत्मपरक्ताकता अथवा भावमयता किसी कवि की सीमा नहीं बल्कि शक्ति है जो उसकी प्रत्येक कविता में गति प्रदान करती है, ऊर्जा देती है आत्मपरक प्रगीत भी नाट्यधर्मी लम्बी कविताओं के समान हैं , यथार्थ की अभिव्यक्ति करते हैं , फिर भी अन्तर अवश्य है , यहाँ वस्तुगत यथार्थ अन्तर्जगत उस मात्रा में घुला होता है जितनी उस यथार्थ की ऐन्द्रिक उबुद्धता के लिये महत्व है । अत यह स्पष्ट है कि किसी प्रगीतात्मक कविता में वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकतों के रूप में ही व्यक्त है।
4. आधुनिक प्रगीत काव्य किन अर्थों में भक्ति काव्य से भिन्न एवं गुप्तजी आदि के प्रबन्ध काव्य से विशिष्ट है क्या आप आलोचक से सहमत हैं अपने विचार दे।
उत्तर-भक्तिकाव्य प्रायः वर्णनात्मक काव्य है जिसकी सबसे बड़ी विशेषता है उसमें जीवन के नाना पक्षों का चित्रण आधुनिक प्रगीत काव्य में भी प्रबन्ध काव्य की भाँति जीवन के सार चित्र खींचे गये हैं । प्रसाद , मुक्तिबोध , निराला , नागार्जुन , शमशेर आदि को लम्बी कविताएँ यथा कामायनी , आँसू , राम की शक्ति पूजा , तुलसीदास , मुक्तिबोध का ब्रह्म राक्षस , पेशोला की प्रतिध्वनि , नागार्जुन के अकाल और उसके बाद जैसी कविताएँ जिसमें जीवन के विविध चित्र कम महत्वपूर्ण नहीं हैं , यही कारण है आज के प्रगीत का स्वर सूक्ष्म है और निराला भी है।
5. हिन्दी की आधुनिक कविता की क्या विशेषताएँ आलोचक ने बतायी हैं
उत्तर- आज के हिन्दी काव्य में नयी प्रगीतात्मकता का समावेश हो उठा है, जिसमें कवि का आत्मसंघर्ष तो है ही , सामाजिक यथार्थ भी ओझल नहीं हुआ है । आज का कवि न तो अपने को छिपाना चाहता है और न समाज को नंगा करने में संकोच करता है। उसके अन्दर किसी असंदिग्ध विश्व दृष्टि का मजबूत स्केच गाड़ने की जिद है और न बाहर की व्यवस्था को एक विराट पहाड़ के रूप में आँकने की हवस । अन्दर का सूक्ष्मतम और सूक्ष्मतर सब बाहर है बाहर का एक नन्हा कण भी सब सामने है – हर प्रकार की स्थिति , कथन , घटना बड़ी शान्ति से शब्दों में पिरो दी जाती है उसका और समाज का रिश्ता एक नये कोण से देखा जा सकता । यहाँ जो भी दिखता है , वही नव प्रगीतात्मकता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!