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12th Hindi Subjective Question Part-13| शिक्षा पाठ का सारांश लिखें| vvi hindi subjective question

1.शिक्षा पाठ का सारांश लिखें

शिक्षा जे. कृष्णमूर्ति के द्वारा एक अद्भुत पाठ है जिसमे लेखक कहते है कि शिक्षा मात्र व्यवसाय का साधन नहीं है वह मानव के जीवन के उन्नयन का महत्वपूर्ण साधन है । उसके माध्यम से जीवन का सत्य तथा जीवन जीने की प्रणाली का आभास होता है। वे कहते हैं चाहे शिक्षक हो या छात्र , शिक्षा का उद्देश्य किसी को भी ज्ञात नहीं है । बस इतना पता है यह जीविका कमाने का साधन है। जीवन विलक्षण है , असीम है , अगाध है मानाकि शिक्षा जीवन लक्ष्य से भटक गयी है । पक्षी , फूल , वृक्ष , यह आकाश के सितारे , सरिताएँ आदि सब हमारा जीवन है । जीवन समुदाय , जातियों और देश का पारस्परिक सतत् संघर्ष है क्योंकि जीवन ही धर्म है । जीवन मन की दबी ढंकी भावनाएँ भी हैं – ईर्ष्या , महत्वाकांक्षाएँ , वासनाएँ, सफलताएँ, चिंताएँ आदि भी जीवन ही है। शिक्षा ही सबका अनावरण करती है। शिक्षा ही हमें प्रबुद्ध बनाकर सम्पूर्ण जीवन प्रक्रिया के समझने में सहायक होती है उनकी मान्यता है कि व्यक्ति को बचपन से ही ऐसा वातावरण मिलना चाहिए जहाँ भय का लेशमात्र भी न हो, भय व्यक्ति में कुंठाजगा देता है , उसकी महत्वाकांक्षाओं को दबा देता है । उनके अनुसार मेधा वह शक्ति है जिसके आधार पर वातावरण के दबाव और भय के वातावरण में स्वतन्त्रतापूर्वक सोच सकते हैं । यही सत्य और वास्तविकता की खोज का साधन भी है । भय सर्वत्र समाया है। यह दुनिया वकीलों , सैनिकों और सिपाहियों की ही है अत यहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी के विरोध में खड़ा है । वह किसी सुरक्षित स्थान पर जाना चाहता है । वह संघर्ष भी कर रहा है , वह प्रतिष्ठा , सम्मान , शान्ति तथा आराम पाना चाहता है । यह कार्य शिक्षा के माध्यम से ही सम्पन्न हो सकता है ।

2. शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके क्या कार्य हैं स्पष्ट करें ।
उत्तर – शिक्षा जीवन सत्य से परिचित कराती है। साथ ही समस्त जीवन प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करती है । हमारा जीवन अद्भुत है यहाँ पक्षी , फूल , वृक्ष , आकाश, तारे सभी जीवन हैं। जीवन के कई रूप हैं। यह अमीर भी है , गरीब भी है। ईर्ष्या , महत्वाकांक्षा , वासनाएँ, भय , सफलताएँ तथा चिन्ताएँ सब जीवन के ही अंग हैं। हम जीवन से भय खाते हैं चिन्तित भी रहते हैं। इन सब स्थितियों का निराकरण शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।। शिक्षा ही समाज के ढाँचे के अनुकूल बनाने में आपकी सहायता करती है । यह व्यक्ति को स्वतन्त्र बना देती है। सामाजिक समस्याओं का निराकरण भी शिक्षा काही कार्य है।
3. जीवन क्या है इसका परिचय लेखक ने किस रूप में दिया है
उत्तर – लेखक कहते है यह सारी सृष्टि जीवन है । जीवन बड़ा अद्भुत है , यह असीम और अगाध है यह विशाल साम्राज्य है जहाँ हम मानव कर्म करते हैं। यह जीवन विलक्षण है। ये पक्षी, फूल , ये वैभवशाली वृक्ष , यह आसमान , ये सितारे , ये सरिताएँ, ये मत्स्य यह सब हमारा जीवन हैं। जीवन ध्यान है, जीवन धर्म है, जीवन गूढ़ है , जीवन मन की प्रच्छन्नवस्तुएँ है – ईर्ष्याएँ , महत्त्वाकांक्षाएँ , वासनाएँ , भय सफलताएँ एवं चिंताएँ । केवल इतना ही नहीं बल्कि इससे कहीं ज्यादा है । लेकिन बहुत कम अपने आपको जीवन के केवल एक छोटे – से कोने को समझने के लिए ही तैयार करते हैं । इस जीवन को समझने में शिक्षा हमारी मदद करती है।
4. जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती। क्यों
उत्तर -भय हमारी समाज शक्तियों को कुंठित कर देता है फिर चाहे मेधा हो , या अन्य कोई शक्ति । जो व्यक्ति बचपन से ही ऐसे वातावरण में रहते हैं जहाँ भय का लेश नहीं होता उनका विकास चहुंमुखी तो होता ही है उनकी मेधा शक्ति भी बड़ी प्रबल होती है । बालक जब चारों ओर भय देखते हैं , हमारा विकास तो हो जाता है पर हमारी मेधा शक्ति कुंठित हो जाती है । जीवन में हजारों भय है जीविका का भय , परम्पराओं का भय (कोई क्या कहेगा ) पड़ोसी, पत्नी का भय अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी रूप के भय में डूबे रहते हैं । उनकी मेधा शक्ति कुंठित हो जाती है । भयग्रस्त व्यक्ति क्या सोच सकेगा फिर सत्य क्या खोजेगा उसके पास सोचने का अवकाश ही नहीं होगा और न ही शक्ति ही होगी । उसकी मेधा भी पूर्ण विकसित नहीं हो पाती है भय हमारे सामने पग पग पर अवरोध उपस्थित कर देता है और सारी महत्वाकांक्षाओं को दबा देता है। चिन्ता का जन्म भी भय से ही होता है और चिन्ता व्यक्ति को जीवित ही जला देती है।
5. व्याख्या करें यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा , सम्मान , शक्ति व आराम के लिये निरन्तर संघर्ष कर रहा है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियाँ जे . कृष्णमूर्ति द्वारा रचित निबन्ध शिक्षा से उद्धृत हैं । यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य का उद्घाटन किया गया है कि आज का समाज असंगठित है परस्पर मनमुटाव से ग्रस्त है और प्राय व्यक्ति एक – दूसरे के विपरीत खड़ा है । समाज टुकड़ों में बँटा , जातियों में बँटा , वर्गों में बँटा , सम्प्रदायों में बँटा और प्रत्येक वर्ग एक दूसरे वर्ग के प्रति विद्रोह की भावना ही समेटे रहता है । शोषण शोषित का संघर्ष तो स्वाभाविक है पर एक ही धर्म के मानने वालों का परस्पर संघर्ष कहाँ तक उचित है । एक दूसरी स्थिति भी है । वह है आगे बढ़ने की लालसा में भले ही इसके लिये दूसरे को कुचलना पड़े । यह मानव मानव की नियति है , समाज की नियति है और राष्ट्र की भी है । एक राष्ट्र दूसरे के प्रति ऐसा ही भाव रखता है।

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